ओशो भारत के सबसे अधिक रहस्यमयी अध्यात्मिक गुरु और दार्शनिक रहे है बहुत से लोग है जो उनसे सहमत नहीं है लेकिन उनसे अधिक तादात में वो है जो इनसे सहमत है क्योंकि जाहिर सी बात है किसी भी इन्सान को पढ़े बिना या सुनी सुनाई बातों को आधार मानकर उसके विचारो से सहमत या असहमत होना पूर्ण रूप से मूर्खता है और जो लोग ओशो से सहमत नहीं है वो ये तर्क देते है कि ओशो ने sex पर अपने खुले विचार रखकर जो सोच लोगो में कायम करने की कोशिश की वो संस्कृति विनाशक है जबकि ऐसा नहीं है क्योंकि मेरे ख्याल से जब एक व्यस्क इन्सान sex के बारे में दिनभर सोच सकता है तो उस पर बात करने में क्या हर्ज़ है और न ही कोई बुराई है | ओशो की बहुत सी अन्य पुस्तके है जो sex विषय से हटकर है और आप उनके पढ़कर जिन्दगी के बारे में कंही बेहतर नजरिया हासिल कर सकते है | वैसे आपको बता दू ओशो की सबसे विवादित पुस्तक जो है वो है "सम्भोग से समाधी की ओर" और जो इन्सान ओशो के बारे में पूर्वाग्रह लिए है उसे कम से कम एक बार इस पुस्तक को अवश्य पढना चाहिए | मैं यकीन से कह सकता हूँ आप पहली बार कुछ नया देखेंगे |
मनुष्य का संघर्ष किस से है ? अपने "मैं " से | जो क्रांति करनी है वो खुद के अहंकार से करनी है | अहंकार से घिरा होना ही संसार में होना है और जो अहंकार के बाहर है वही परमात्मा में है | वस्तुत: वह 'परमात्मा' ही है | 'मैं' से भागने की कोशिश मत करना | उस से भागना हो ही नहीं सकता ,क्योंकि भागने में भी वह साथ ही है | उस से भागना नहीं है बल्कि समग्र शक्ति से उसमे प्रवेश करना है | खुद की अंहता में जो जितना गहरा होता जाता है उतना ही पाता है कि अंहता की कोई वास्तविक सत्ता है ही नहीं |
परमात्मा का प्रमाण पूछते हो ? क्या चेतना का अस्तित्व पर्याप्त प्रमाण नहीं है ? क्या जल की बूँद ही समस्त सागरों को सिद्ध नहीं कर देती है | जीवन की खोज में आत्मसतुष्टि से खतरनाक और कुछ भी नहीं | जो खुद से संतुष्ट है वो एक अर्थ में जीवित ही नहीं है और खुद से असंतुष्ट है वही सत्य की दिशा में गति करता है | स्मरण रखना कि आत्मसतुष्टि से निरंतर ही विद्रोह में होना धार्मिक है |
मृत्यु से घबराकर तो तुमने कंही ईश्वर का अविष्कार नहीं कर लिया है ? भय पर आधारित ईश्वर से असत्य और कुछ भी नहीं है | जो सदा वर्तमान में है वही सत्य है | निकटतम हो है वही अंतिम सत्य है | दूर को नहीं निकट को जानो क्योकि जो निकट को ही नहीं जानता है वो दूर को कैसे जानेगा ? और जो निकट को जन लेता है उसके लिए दूर शेष ही नहीं रह जाता है | सबसे बड़ी मुक्ति है स्वयं को मुक्त करना क्योंकि साधारणतया हम भूले ही रहते है कि स्वयं पर हम स्वंय ही सबसे बड़ा बोझ है |
मनुष्य को मनुष्यता बनी बनाई नहीं प्राप्त होती है | उसे तो मनुष्य को स्वयं निर्मित करना होता है | यही सौभाग्य भी है और दुर्भाग्य भी | सौभाग्य क्योंकि स्वयं को सृजन की स्वतंत्रता भी है लेकिन स्वयं को निर्मित किये बिना नष्ट हो जाने की सम्भावना भी |
मनुष्य को अपना विकास करके ईश्वर नहीं होना है मेरी दृष्टि में अगर वो अपने आप को पूरी तरह उघाड़ ले (जान ले ) तो वो अभी और यंही ईश्वर है | स्वयं का सम्पूर्ण आविष्कार ही एकमात्र विकास है |
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hindi story of osho |
मनुष्य का संघर्ष किस से है ? अपने "मैं " से | जो क्रांति करनी है वो खुद के अहंकार से करनी है | अहंकार से घिरा होना ही संसार में होना है और जो अहंकार के बाहर है वही परमात्मा में है | वस्तुत: वह 'परमात्मा' ही है | 'मैं' से भागने की कोशिश मत करना | उस से भागना हो ही नहीं सकता ,क्योंकि भागने में भी वह साथ ही है | उस से भागना नहीं है बल्कि समग्र शक्ति से उसमे प्रवेश करना है | खुद की अंहता में जो जितना गहरा होता जाता है उतना ही पाता है कि अंहता की कोई वास्तविक सत्ता है ही नहीं |
परमात्मा का प्रमाण पूछते हो ? क्या चेतना का अस्तित्व पर्याप्त प्रमाण नहीं है ? क्या जल की बूँद ही समस्त सागरों को सिद्ध नहीं कर देती है | जीवन की खोज में आत्मसतुष्टि से खतरनाक और कुछ भी नहीं | जो खुद से संतुष्ट है वो एक अर्थ में जीवित ही नहीं है और खुद से असंतुष्ट है वही सत्य की दिशा में गति करता है | स्मरण रखना कि आत्मसतुष्टि से निरंतर ही विद्रोह में होना धार्मिक है |
मृत्यु से घबराकर तो तुमने कंही ईश्वर का अविष्कार नहीं कर लिया है ? भय पर आधारित ईश्वर से असत्य और कुछ भी नहीं है | जो सदा वर्तमान में है वही सत्य है | निकटतम हो है वही अंतिम सत्य है | दूर को नहीं निकट को जानो क्योकि जो निकट को ही नहीं जानता है वो दूर को कैसे जानेगा ? और जो निकट को जन लेता है उसके लिए दूर शेष ही नहीं रह जाता है | सबसे बड़ी मुक्ति है स्वयं को मुक्त करना क्योंकि साधारणतया हम भूले ही रहते है कि स्वयं पर हम स्वंय ही सबसे बड़ा बोझ है |
मनुष्य को मनुष्यता बनी बनाई नहीं प्राप्त होती है | उसे तो मनुष्य को स्वयं निर्मित करना होता है | यही सौभाग्य भी है और दुर्भाग्य भी | सौभाग्य क्योंकि स्वयं को सृजन की स्वतंत्रता भी है लेकिन स्वयं को निर्मित किये बिना नष्ट हो जाने की सम्भावना भी |
मनुष्य को अपना विकास करके ईश्वर नहीं होना है मेरी दृष्टि में अगर वो अपने आप को पूरी तरह उघाड़ ले (जान ले ) तो वो अभी और यंही ईश्वर है | स्वयं का सम्पूर्ण आविष्कार ही एकमात्र विकास है |
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